उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ,
              हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचण्ड हो
              फैल रही थी इधर उधर।
 क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का
              करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त,
भरे हुए था निज कृश रव में
              हाहाकार अपार अशान्त।
 बहुत रोकता था सुखिया को
              ' जा खेलने को बाहर',
नहीं खेलना रुकता उसका
              नहीं ठहरती वह पल भर।
 मेरा हृदय काँप उठता था,
              बाहर गई निहार उसे;
यही मानता था कि बचा लूँ
              किसी भांति इस बार उसे।
भीतर जो डर रहा छिपाये,
              हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को
              ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर से विह्वल हो बोली वह,
              क्या जानूँ किस डर से डर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर।

बेटी, बतला तो तू मुझको
              किसने तुझे बताया यह;
किसके द्वारा, कैसे तूने
              भाव अचानक पाया यह?
मैं अछूत हूँ, मुझे कौन हा!
              मन्दिर में जाने देगा;
देवी का प्रसाद ही मुझको
              कौन यहाँ लाने देगा?
बार बार, फिर फिर, तेरा हठ!
              पूरा इसे करूँ कैसे;
किससे कहे कौन बतलावे,
              धीरज हाय! धरूँ कैसे?
कोमल कुसुम समान देह हा!
              हुई तप्त अंगार-मयी;
प्रति पल बढ़ती ही जाती है
              विपुल वेदना, व्यथा नई।
मैंने कई फूल ला लाकर
              रक्खे उसकी खटिया पर;
सोचा - शान्त करूँ मैं उसको,
              किसी तरह तो बहला कर।
तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब
              बोल उठी वह चिल्ला कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर!

क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया,
              शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की
              चिन्ता में मैं मनमारे।
जान सका प्रभात सजग से
              हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा,
              कब आई सन्ध्या गहरी।
सभी ओर दिखलाई दी बस,
              अन्धकार की छाया गहरी।
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने
              कितना बड़ा तिमिर आया!
ऊपर विस्तृत महाकाश में
              जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें
              जगमग जगते तारों से।
देख रहा था - जो सुस्थिर हो
              नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी
              अटल शान्ति-सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
              उसे स्वयं ही उकसा कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल ही दो लाकर!

हे मात:, हे शिवे, अम्बिके,
              तप्त ताप यह शान्त करो;
निरपराध छोटी बच्ची यह,
              हाय! मुझसे इसे हरो!
काली कान्ति पड़ गई इसकी,
              हँसी जाने गई कहाँ,
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर
              साँसों में ही हाय यहाँ!
अरी निष्ठुरे, बढ़ी हुई ही
              है यदि तेरी तृषा नितान्त,
तो कर ले तू उसे इसी क्षण
              मेरे इस जीवन से शान्त!
मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी
              विनती भी है हाय! अपूत,
उससे भी क्या लग जावेगी
              तेरे श्री-मन्दिर को छूत?
किसे ज्ञात, मेरी विनती वह
              पहुँची अथवा नहीं वहाँ,
उस अपार सागर का दीखा
              पार मुझको कहीं वहाँ।
अरी रात, क्या अक्ष्यता का
              पट्टा लेकर आई तू,
आकर अखिल विश्व के ऊपर
              प्रलय-घटा सी छाई तू!
पग भर भी बढ़ी आगे तू
              डट कर बैठ गई ऐसी,
क्या अरुण-आभा जागेगी,
              सहसा आज विकृति कैसी!
युग के युग-से बीत गये हैं,
              तू ज्यों की त्यों है लेटी,
पड़ी एक करवट कब से तू,
              बोल, बोल, कुछ तो बेटी!
वह चुप थी, पर गूँज रही थी
              उसकी गिरा गगन-भर भर -
'मुझको देवी के प्रसाद का -
              एक फूल तुम दो लाकर!'

"कुछ हो देवी के प्रसाद का
              एक फूल तो लाऊँगा;
हो तो प्रात:काल, शीघ्र ही
              मन्दिर को मैं जाऊँगा।
तुझ पर देवी की छाया है
              और इष्ट है यही तुझे;
देखूँ देवी के मन्दिर में
              रोक सकेगा कौन मुझे।"
मेरे इस निश्चल निश्चय ने
              झट-से हृदय किया हलका;
ऊपर देखा - अरुण राग से
              रंजित भाल नभस्थल का!
झड़-सी गई तारकावलि थी
              म्लान और निष्प्रभ होकर;
निकल पड़े थे खग नीड़ों से
              मानों सुध-बुध सी खो कर।
रस्सी डोल हाथ में लेकर
              निकट कुएँ पर जा जल खींच,
मैंने स्नान किया शीतल हो,
              सलिल-सुधा से तनु को सींच।
उज्वल वस्र पहन घर आकर
              अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से
              सजली पूजा की थाली।
सुकिया के सिरहाने जाकर
              मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी
              मुरझा-सा था पड़ा हुआ।
मैंने चाहा - उसे चुम लें,
              किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल, सिकुड़कर
              खड़ा रहा कुछ दूरी पर।
वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा,
              जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसकी वह मुसकाहट भी हा!
              कर सकी मुझको मुद-मग्न।
अक्षम मुझे समझकर क्या तू
              हँसी कर रही है मेरी?
बेटी, जाता हूँ मन्दिर में
              आज्ञा यही समझ तेरी।
उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही
              बोल उठा तब धीरज धर -
तुझको देवी के प्रसाद का
              एक फूल तो दूँ लाकर!                                                                   next part


मधुर मधुर मेरे दीपक जल
युग युग प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर

सौरभ फैला विपुल धुप बन
मृदुल मोम सा घुल रे मृदुतन
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित
तेरे जीवन का अणु गल गल
पुलक पुलक मेरे दीपक जल

सारे शीतल कोमल नूतन
मांग रहे तुझसे ज्वाला कण
विश्व शलभ सिर धुन कहता ' मैं
हाय न जल पाया तुझमे मिल '
सिहर सिहर मेरे दीपक जल

जलते नभ देख असंख्यक
स्नेहहीन नित कितने दीपक
जलमय सागर का ऊर जलता
विद्दुत ले घिरता है बदल
विहँस विहँस मेरे दीपक जल

द्रुम के अंग हरित कोमलतम
ज्वाला को करते हृदयंगम
वसुधा के जड़ अंतर में भी
बंदी है तापों की हल चल
बिखर बिखर मेरे दीपक जल

मेरी निश्वासों से द्रुततर
सुभग न तू भुजने का भय कर
मैं अंचल की ओट किये हूँ
अपनी मृदु पलकों से चंचल
सहज सहज मेरे दीपक जल

सीमा ही लघुता का बंधन
है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन
मैं दृग के अक्षय कोषों से
तुझमे भर्ती हु आंसू जल
सजल सजल मेरे दीपक जल

तम असीम तेरा प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरंतर
तम के अणु अणु में विद्युत सा
अमिट चित्र अंकित करता चल
सरल सरल मेरे दीपक जल

तू जल जल जितना होता क्षय
वह समीप आता छलनामय
मधुर मिलान में मिट जाना तू
उसकी उज्जवल स्मित में घुल मिल
मदिर मदिर मेरे दीपक जल

प्रियतम का पथ आलोकित कर। ..
अपना ही राग अलापना - अपनी बातें ही करते रहना।
प्रयोग - मोहन दूसरे की बात सुनता ही नहीं है केवल अपना ही राग अलापता रहता है।

आँखों का तार - बहुत प्यारा लग्न।
प्रयोग - इकलौता पुत्र अपने माता-पिता की आँखों का तार होता है।

अपना उल्लू सीधा करना - केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना।
प्रयोग- जो मनुष्य स्वार्थी होता है वह केवल अपना ही उल्लू सीधा करता है।

अपने मुह मियां मिट्ठू बनना - अपनी प्रशंसा स्वयं करना।
प्रयोग - अभिमानी मनुष्य अपने मुह मिट्ठू बनते हैं।

अंधे को चिराग दिखाना - व्यर्थ का कार्य करना।
प्रयोग - किसी मुर्ख और पागल व्यक्ति को उपदेश देना वाकई में अंधे को चिराग दिखाने जैसा है।

अंगूठा दिखाना - अपमान पूर्ण अवज्ञा करना।
प्रयोग - मैंने कल तुमसे पैसे लौटाने को कहा था और आज तुम मुझे अंगूठा दिखा रहे हो।

अक्ल पर पत्थर पड़ना - अज्ञानता से काम करना।
प्रयोग -  


विज्ञानं एक शक्ति है, जो नित नए आविष्कार करती है।  वह शक्ति न ही अच्छी है न ही बुरी वह तो केवल शक्ति है।  अगर हम उस शक्ति से मानव कल्याण के कार्य करें तो वह वरदान प्रतीत होती है अगर उसी से विनाश करना शुरू कर दें तो वह अभिशाप लगती है।
   विज्ञानं ने अंधों को ऑंखें दी हैं और बहरों को सुनने की ताकत।  लाइलाज रोगों की रोकथाम की है और अकाल मृत्यु पर विजय पायी है। विज्ञानं की सहयता से यह युग बटन युग बन गया है।  बटन दबाते ही वायु देवता पंखे को लिए हमारी सेवा करने लगते हैं, इंद्र देवता वर्षा करने लगते हैं, कहीं प्रकाश जगमगाने लगता है तो कही शीत उष्ण हवा के झोंके सुख देने लगते हैं। बस, गाड़ी, वायुयान ने स्थान की दूरी को बांध दिया है।  टेलीफोन द्वारा तो हम सारी वसुधा से बातचीत कर उसे वाकई में कुटुंब बना लेते हैं।  हमने समुद्र की गहराइयाँ भी नाप डाली हैं और आसमान की उचाइयां भी।  हमारे टी.वि. रेडियो, वीडियो में मनोरंजन के सभी साधन कैद हैं।  सचमुच विज्ञानं वरदान ही तो है।
       मनुष्य ने जहाँ विज्ञानं से सुख साधन जुटाए हैं वहीं दुःख के अम्बार भी खड़े कर लिए हैं।  विज्ञानं के द्वारा हमने परमाणु बम जैसे कई खतरनाक हतियार तैयार कर लिए हैं।  वैज्ञानिकों का कहना है की अब दुनिया में इतनी विनाशकारी सामग्री एकत्र हो चुकी है की उससे सारी पृथ्वी  को पंद्रह बार नष्ट किया जा सकता है।  इसके अतिरिक्त प्रदूषण की समस्या बहुत बुरी तरह फ़ैल गयी है।  नित्य नए असाध्य रोग पैदा होते जा रहे हैं जो वैज्ञानिक साधनो का अंधाधुन्द प्रयोग करने का दुष्परिणाम है।
   वैज्ञानिक प्रगति का सबसे बड़ा दुष्परिणाम मानव मन पर हुआ है।  पहले जो मानव निष्कपट था, निस्वार्थ था, भोला था, मस्त और बेपरवाह था अब वह छलि, चालाक, भौतिकवादी, और तनावग्रस्त हो गया है।
उसके जीवन में से संगीत गायब हो गया है, धन की प्यास जाग गयी है।
नैतिक मूल्य नष्ट हो गए हैं।  जीवन में संघर्ष ही संघर्ष रह गए हैं।
               संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित।
               पर झाँक कर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित।।
वास्तव में विज्ञानं को वरदान या अभिशाप बनाने वाला मनुष्य है।
जैसे अग्नि से हम रसोई भी बना सकते हैं और किसी का घर भी जला सकते हैं , चाकू से फलों का स्वाद भी ले सकते हैं और किसी का रक्त भी बहा सकते हैं ; उसी प्रकार विज्ञानं से  हम सुख साधन भी जुटा सकते हैं और मानव का विनाश भी कर सकते हैं।
अतः विज्ञानं को वरदान या अभिशाप बनाना मानव के हाथ में ही है।
इस सन्दर्भ में एक उक्ति याद रखनी चाहिए :
             ' विज्ञानं अच्छा सेवक है, लेकिन बुरा हतियार'

Like this article?? Please share your views in the comment box below. If you need help with any other article feel free to drop a message at our facebook page and we will be glad to help you.
है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी।
 हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा और लिपि है नागरी।

संसार में मानव भाग्यशाली है जिसे भाषा का वरदान मिला है, जिसके द्वारा वह अपने भावों को व्यक्त कर सकता है।  साहित्य, कला, और विज्ञानं को दर्शाने का आधार है भाषा।  किसी भी राष्ट्र के निवासिओं में राष्ट्रिय एकता की भावना के विकास के लिए एक ऐसी भाषा अवश्य होना चाहिए जिसका व्यवहार राष्ट्रिय स्तर पर किया जा सके।
राष्ट्रभाषा देश का प्रतीक होती है।  मान सम्मान और गौरव होती है।
किसी भी देश में अगर उन्नति प्राप्त करनी है तो राष्ट्र भाषा का सम्मान करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी आज जिस रूप में जानी जाती है वह उसका विकसित रूप है।  उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली आदि. क्षेत्रों में हिंदी का प्रयोग किया जाता है।  यहाँ के निवासिओं की मातृभाषा हिंदी है।  इसलिए इन राज्यों को हिंदी भाषी क्षेत्र कहा जाता है।  इन राज्यों में हिंदी की अनेक बोलियाँ विद्यमान हैं।
पंजाब, गुजरात, तथा महाराष्ट्र राज्यों में हिंदी को द्वितीय भाषा का दर्ज़ा प्राप्त है।
भारत के सभी राज्यों में हिंदी का प्रयोग संपर्क भाषा के रुप में किया जाता है।  सम्पूर्ण भारतवर्ष तथा कुछ देशों इसके अध्ययन की व्यवस्था है।
ज्ञान-विज्ञानं, वाणिज्य, शिक्षा-माध्यम तथा तकनीकी विषयों का अध्ययन भी हिंदी भाषा के माध्यम से हो रहा है।
हिंदी आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलन में है।  नेपाल, सूरीनाम, कैनाडा, इंग्लैंड ityadi