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समय समय पर भारत में महान आत्माओं ने जन्म लिया है।
गौतम बुद्ध, महावीर, अशोक, नानक,नामदेव, कबीर जैसे महान त्यागी और आध्यात्मिक पुरुषों के कारण ही भारत भूमि संत और महात्माओं का देश कहलाती है। ऐसे ही महान व्यक्तिओं की परम्परा में महात्मा गांधी ने जन्म लिया।  सत्य, अहिंसा और मानवता के इस पुजारी ने न केवल धार्मिक क्षेत्र में ही हम भारतवासिओं का नेतृत्व किया बल्कि राजनीती को भी प्रभावित किया।  सदियों से परतंत्र भारत माता के बंधनों को काट गिराया।  आज महात्मा गांधी के प्रयत्नो से हम भारतवासी स्वतंत्रता की खुली हवा में सांस ले रहे हैं।
               राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म पोरबन्दर(काठियावाड़) में २ अक्टूबर १८६९ को हुआ था।  उनके पिता राजकोट के दीवान थे।  इनका बचपन का नाम मोहनदास था।  इन पर बचपन से ही आदर्श मात और सिद्धांतवादी पिता का पूरा पूरा प्रभाव पड़ा।
  गांधीजी ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा राजकोट में प्राप्त की।  १३ वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह हो गया था। इनकी पत्नी का नाम कस्तूरबा था।  मेट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद वे वकालत की शिक्षा करने के लिए इंग्लॅण्ड चले गए।
वे ३ वर्ष तक इंग्लैंड में रहे।  वकालत पास करने के बाद वे वापस भारत आ गए।  वे आरम्भ से ही सत्य में विश्वास रखते थे।  भारत में वकालत करते हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ था की उन्हें एक भारतीय व्यापारी द्वारा अफ्रीका बुलाया गया।  वहां उन्होंने भारतियों की अत्यंत शोचनीय दशा देखि।  गांधीजी ने भारतवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष आरम्भ कर दिया।
दक्षिण अफ्रीका से लौट कर गांधीजी ने अहिंसात्मक तरीके से भारतियों के अधिकारों के लिए लड़ने का निश्चय किया।  उस समय तिलक, गोखले, लाला लाजपत राय आदि नेता कांग्रेस पार्टी के माध्यम से आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थे।  गांधीजी पर उनका अत्यधिक प्रभाव पड़ा।
        १९२१ में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन चलाया।  गांधीजी धीरे धीरे सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध हो गए।  अंग्रेज़ सरकार ने आंदोलन को दबाने का प्रयास किया।  भारतवासियों पर तरह तरह के अत्याचार किये।  गांधीजी ने १९३० में नमक सत्याग्रह और १९४२ में भारत छोडो आंदोलन चलाये।
भारत के सभी नर-नारी उनकी एक आवाज़ पर उनके साथ बलिदान देने के लिए तैयार थे।
गांधीजी को अंग्रेज़ों ने बहुत बार जेल में बंद किया।  गांधीजी ने अछूतोद्धार के लिए काम किया। स्त्री शिक्षा और राष्ट्र भाषा हिंदी का प्रचार किया।
हरिजनों के उत्थान के लिए काम किया।  स्वदेशी आंदोलन और चरखा आंदोलन चलाया।  गांधीजी के प्रयत्नों से भारत १५ अगस्त १९४७ को आज़ाद हुआ।
    सत्य अहिंसा और मानवता के इस पुजारी की ३० जनवरी १९४८ को नाथू राम गोडसे ने गोली मरकर हत्या करदी।  इससे सारा विश्व विकल हो उठा।

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मैं हिंदी हूँ।  आपकी मातृभाषा ! आपकी राष्ट्र भाषा ! मैंने अपनी बात कहने के लिए आज ही का दिन क्यों चुना जानते हो ? क्योंकि आज ही के दिन मुझे  राष्ट्र भाषा के सिंहासन पर बड़े गरिमा पूर्ण ढंग से बैठाया गया था।  तब मैं गर्वित हुई मेरा स्वाभिमान जाग उठा।  और उस स्वाभिमान को बनाये रखने के लिए मेरे लाडलों - कवियों - साहित्यकों ने अथक प्रयास किए मैं बढ़ चली विकसित होती गई ज़्यादा प्रबुह ज़्यादा परिष्कृत।
   इतिहास की परतों में बहुत दर्द और पीड़ा झेली हैं मैंने।  तुम्हे याद होगा वह समय............
जब नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय को आग के सुपुर्द किया गया वह भारत की भाषा और संस्कृति पर बहुत बड़ा हमला था जिसके कारण मेरी कृतियाँ सदा के लिए काल के गाल में समां गईं।
          मेरा दामन जल उठा परन्तु मेरा दर्द बांटने आई उर्दू।  उसने मुझे सहलाया मैंने उसे बहन की तरह अपनाया हम दोनों अजनबी धीरे धीरे एक  दूसरे को जानने पहचानने लगे।  लेकिन उन दिनों मुझसे ज़्यादा उर्दू को प्यार मिला क्योंकि उसे राजाओं का आश्रय मिला।
  मैं फिर भी अपना स्नेह बांटती हुई बहती रही सहती रही।
भारत की धरती विदेशियों से पदक्रांत थी।  मुझे एक और भाषाई हमला झेलना था वह था अंग्रेजी।  उसे शासन का आश्रय मिला था इसलिए अंग्रेजी जानने वाले भारतियों की बड़ी पूछ परख होती थी।  हिंदी में लिखे गए आवेदन पत्र, प्रार्थना पत्र भी फाड़ कर रद्दी की टोकरी में फैंक दिए जाते।
न्यायालयों के निर्णय कार्यालयों की कार्यवाही विश्वविद्यालयों की शिक्षा शासकीय आज्ञाएं सभी कुछ अंग्रेजी में होता था।
भारतीय विवश होकर अच्छा ओहदा और शासन में मान सम्मान पाने के लिए अंग्रेजी के आँचल में जा छिपते।  परन्तु उनके दिलों में आज़ादी के लिए छटपटाती वन्दे मातरम की धुन मैं ही  थी फिर समय आया आज़ादी का।  देश में तिरंगा लहराया और ज़रूरत हुई भारत की राष्ट्रीय काम काज की भाषा की।
ढेर सारी मीठी प्यारी बोलियों और क्षेत्रीय भाषाओँ की आत्मा रूप में मुझे पहचान लिया गया और मेरा पुनर्जन्म हुआ।

 आज मेरे लाडले पढ़ लिखकर देश विदेश में फ़ैल गए हैं और आपसी भाषा के रूप में मेरा अक्स निहार रहे हैं , मैं वैश्विक भाषा हो गयी हूँ।
मुझे ज़रूरत नहीं है के मेरे इस स्थापना दिवस पर नेताओं द्वारा भाषण दिए  जाएँ।  हिंदी की चिंतनीय स्थितियों पर बहस की जाए।  और मुझे बेचारी हिंदी कहा जाए।  मैं तो आप में ढूंढ रही हूँ मेरे वो आदरणीय हिंदी शिक्षक जो बालकों को सही हिंदी की शिक्षा दे रहे हैं।
 मैं ढूंढ रही हूँ वो मीरा, सूर, तुलसी, और कबीर।  जिनकी कविता की लय पर हिंदुस्तान धड़कता है। मैं जगाना चाहती हु आप सब में छिपे हुए प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त और हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, रवीन्द्रनाथ टैगोर को जो सोये हैं आप सब के भीतर।
क्योंकि हिंदी के आकाश में सदा ही आप जैसे सितारे जगमगाते रहना चाहिए।  आकाश तो अनंत है वह कभी समाप्त नहीं होगा।
और इन सब के पीछे मेरी सेना हैं हिंदी के शिक्षक जो निरंतर प्रतिभाओं को  ढूंढ़कर उन्हें परिष्कृत कर रहे हैं।
तो आइये हाथ से हाथ मिलाइये और गाइये
   हिंदी हैं हम....
                     हिंदी हैं हम वतन हैं ....
हिन्दुस्तान हमारा हमारा। ................

Written By Smt. Aarti Dubey  exclusively for Help Hindi all copy rights reserved.
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नैतिक मूल्य! एक तरह से भारतीय संस्कृति की पहचान, पुरखों से विरासत में मिली अनमोल धरोहर हैं ये ।
सम्पूर्ण विश्व में भारत की पहचान का प्रतीक "नैतिकता" लेकिन कहते हुए बेहद अफ़सोस होता है, की आज की हमारी नई एवं आधुनिक पीढ़ी, जिससे मैं भी आता हूँ, इस बेशकीमती धरोहर को खोती जा रही है.
युवाओं का रुष्ट और रूखा व्यवहार, बड़ों के प्रति अनादर, कुतर्क, मनमानी यह सब दर्शाता है कि युवाओं में नैतिक मूल्यों का स्तर कस हद तक गिर चुका है ।
और कितनी अजीब बात है, यह सब कुछ दशकों के छोटे से अंतराल में हुआ है ।
आज से कुछ दशक पूर्व, अपने बड़ों का आदर करना, उन्हें उचित प्रेम देना कर्त्तव्य माना जाता था, लोग मिलनसार थे, रिश्तों में गर्माहट थी, लेकिन यह कहते हुए भी लज्जा आती है के जिन बूढ़े माँ- बाप ने पाल पोस कर बड़ा किआ वही माँ- बाप आज बच्चों पर बोझ हैं मोबाइल फ़ोन में युवा इतने ध्यान मग्न हैं की मेल मिलाप के लिए वक़्त ही कहाँ ? और रिश्ते तो आजकल फेसबुक पर बनते हैं तो गर्मजोशी  का कोई सवाल ही नहीं उठता
संवेदनहीनता की हद तो इस बात से आंकी जा सकती है की सड़क पर तड़पते हुए घायल की जान बचाने के बजाय हमारे युवा उसकी दर्दनाक तस्वीर अपने स्मार्ट फ़ोन के कैमरों में कैद करने को ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं, ताकि उसे फब पर अपलोड कर सकें और बाकी  के युवक संवेदनशीलता का स्वांग रचाते हुए बड़ी फुर्ती से उस पर लाइक और कमेंट्स करते हैं।
छोटी सी उम्र में ही युवा वह सबकुछ करना चाहते हैं, वह सबकुछ पाना चाहते हैं जो ना ही उनके लिए उचित हैं और ना ही उसका अभी वक़्त आया है।
धूम्रपान , शराब , पैसा, अय्याशी सबकुछ और वह भी शॉर्टकट से.
ऐशो- आराम की महत्वकांशा ऐसी के जब अपने किसी जूनियर या सहपाठी से पूछता हूँ " तुम्हारा सपना क्या है " ? तो हर बार जवाब मिलता है "पैसा" जैसे जीवन में सबकुछ पैसा ही हो, इसके लिए कुछ भी कर गुज़रने की ललक उनके चेहरों पर साफ़ झलकती है।
ना जाने कितने ऐसे उदहारण हैं जो रोज़ अख़बारों में छापते हैं और हमारे आस पास घटित होते हैं, जो दर्शाते हैं के युवा किस हद तक खुद को भुला चुके हैं गिर चुके हैं, और सबसे ज़्यादा तकलीफ तो इस बात की होती है के न तो उन्हें इसकी भनक है और न ही अफ़सोस, मदहोशिओं और मदमस्तीओं में वे चले जा रहे हैं किसी पागल हाथी की तरह अपने रस्ते में आने वाली हर चीज़ को रौंदते कुचलते हुए वे आसमानो में उड़ रहे हैं इस बात से बेखबर के जब ज़मीन पर गिरेंगे तो क्या होगा।
पास ही के एक विद्यालय का उदहारण याद आता है :

उस दिन विद्यालय के सभी सीनियर छात्र "साइकिल रैली " के लिए सुबह एकत्र हुए थे, ज़ाहिर सी बात है वहां शिक्षक भी मौजूद थे, माहौल खुशनुमा था, अचानक विद्यालय का एक पूर्व छात्र अपनी महंगि बाइक से दन- दनता हुआ आता है और आते ही बड़ी दबंगई से कुछ छात्रों से झगड़ा शुरू करता है , और जब वह उपस्थित शिक्षक बीच- बचाव करते हैं तो बड़ी बुलंद आवाज़ में बेहद तुच्छ और निम्न स्तर की गालियाँ जिनका ज़िक्र यहाँ नहीं किआ जा सकता देने के बाद उसके चेहरे पर ऐसे भाव उभरते हैं जैसे ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीता हो।
ना जाने क्या सिद्ध करना चाहता था वह ? और ना जाने क्या प्राप्त हुआ होगा उसे अपने ही शिक्षकों का अपमान करके ? शायद अभिमान हुआ होगा अपनी दबंगई पर !
पर असल में वह इस बात से कितना अनभिज्ञ था की वह "दबंगई" नहीं अपनी अशिष्टता और असभ्यता का प्रदर्शन भरी सबह में कर रहा था।
   कैसी विडम्बना है यह ? जिस भूमि पर "मर्यादा पुरुषोत्तम" श्री राम और अर्जुन जैसे "महान शिष्य" का जन्म हुआ उस ही धरा पर आज हर दूसरे क्षण मर्यादा लांघी जा रही है, आये दिन गुरुओं को अपमानित किआ जाता है, कितना दुर्भाग्यपूर्ण है यह सब .
कहते हैं -
    " असफलता तभी आती है जब हम अपने
       आदर्श, उद्देश्य और सिद्धांत भूल जाते हैं "
और कड़वा सच तो देखिये हमारे आज के युवाओं को तो "आदर्श" ,"उद्देश्य" और "सिद्धांत" का मतलब भी ज्ञात नहीं और उसकी इस ही अनैतिकता के चलते हर रोज़ समाज पतन की नई गहराईयाँ नाप रहा है।
  बड़े ज़ोर-शोर से चहरों तरफ गिरते नैतिक मूल्यों का चर्चा होता है सभाओं में , टेलीविज़न पर, अखबारों में..
बड़े-बड़े विद्वान ,प्रख्यात, प्रकांड पंडित ज्ञान का बघार लगाते हैं, चिंता जताते हैं और घर चले जाते हैं।
वाह ! क्या बात है
आज तक सभी ने विचार ही किया लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक कदम नहीं उठाया।
अगर ईमानदारी से सोचें तो पाएंगे की इस महान समस्या को फ़ैलाने वाले कोई और नहीं अपितु हमारे बड़े ही हैं, समाज में गिरती नैतिकता केवल पतन का ही नहीं बल्कि बड़ों की असफलता का भी प्रतीक है, असफलता विश्व की सबसे कीमती धरोहर अपनी नयी पीढ़ी को ना दे पाने की।
   अपने बच्चों को अच्छे संस्कार और शिक्षा देने के बजाय उनके हाथों में लैपटॉप और इंटरनेट थमा दिए, ज़रा बड़े हुए नहीं के महंगे मोबाइल और गाड़ियां दिला दी और समझ लिए के हमने हमारा फ़र्ज़ पूरा कर दिया
   एक बच्चा कोरे कागज़ की तरह होता है और उस कागज़ पर नैतिक मूल्यों और अच्छी आदतों की तहरीर लिखना माता पिता का फ़र्ज़ पर माता-पिता अपनी निजी ज़िन्दगीओं में ही इतने व्यस्त हो गए के ये भूल ही गए क वे किसी के माता पिता भी हैं, अपनी व्यस्तताओं में इस बात का ध्यान ही नहीं रहा क उनके बच्चों की देश की अगली पीढ़ी की असली ज़रुरत क्या हैं?
कल राष्ट्र की कमान युवाओं क हाटों में होगी. क्या संभालेंगे देश को जो खुद ही को नहीं संभल सकते.
गहरी नींद से जागने का वक़्त अब आ चूका है. ज़रूरत है युवाओं पर दोष मढ़ने के बजाय बड़े इस और कुछ सार्थक कदम उठाये ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त अपने बच्चों के साथ युवाओं के साथ व्यतीत करें. उन्हें  उचित मार्गदर्शन दे देश के सांस्कृतिक गौरव से अवगत कराएं और युवाओं को भी आवश्यकता है समझने की अपने आप को और अपने देश को, पाश्चात्य रंगो में रंगने क बजाय अपनी पहचान बनाने के प्रयत्न करने होंगे..
अंत में चंद  पंक्तियों क साथ यही कहना चाहूंगा और आशा करता हूँ  के  अगर मन क किसी कोने में देश के प्रति लगाव और नैतिकता की एक चिंगारी भी मौजूद होगी तो वह ज्वाला का रूप लेगी.

                                                      खोए रहो तुम खयालो में ऐसे ही
                                                        ये गुलशन वीरान हो जाएगा
                                                     यूँ ही बैठे रहो तुम इंतज़ार में ही
                                                     पूरा शेहेर ही शमशान हो जाएगा
                                                     कब तलक तुम रहोगे उनके भरोसे
                                                    जो करते भ्र्मित खुद भी रहते भ्र्मित
                                                     तोड़ो भरमो को और आगे बढ़ो तुम
                                                       ये गुलशन गुलज़ार हो जायेगा

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भ्रष्टाचार - नीतिपथ से गिरा हुआ अधः पतन और भ्रष्ट - बेईमान, आचरण हीन. ये कुछ वे परिभाषाएं हैं ( भ्रष्टाचार की ) जो आपको किसी भी हिंदी शब्दकोष में आसानी से मिल जाएंगी। इन परिभाषाओं को देखकर प्रतीत होता है जैसे ये बहुचर्चित शब्द "भ्रष्टाचार" कोई बहुत ही बुरी और भयानक चीज़ है। जी हाँ मित्रों! असल में ये भ्रष्टाचार बहुत ही बुरी और भयानक चीज़ है। भ्रष्टाचार जिसे हम अंग्रेजी में करप्शन कहते हैं, वक़्त के साथ एक अंतर्राष्ट्रीय सरदर्द के रूप में उभरा है। केवल भारत ही नहीं, वरन चीन, पाकिस्तान, अफ्रीका, यहां तक कि अमेरिका, जैसे देश भी इससे अछूते नहीं हैं। भरष्टाचार एक दीमक कि तरह है, जैसे दीमक धीरे-धीरे लकड़ी को चट कर जाती है और पता भी नहीं चलता, ठीक उसही तरह ये भ्रष्टाचार रुपी दीमक कब राष्ट्र की आंतरिक व्यवस्थाओं का बुरादा निकाल देती है किसी को खबर भी नहीं होती। भ्रष्टाचार एक वैश्विक और बहुत ही बड़ा मुद्दा है, इस पर गहराई से चर्चा कर पाना इस छोटे से लेख में संभव नहीं है. मैं इस लेख को भारत के सन्दर्भ में संक्षिप्त कर रहा हूँ. भारत जिसे विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गौरव प्राप्त है, आज भ्रष्टाचार से बुरी तरह पीड़ित है। इतना पीड़ित है कि भ्रष्टाचार उसकी पहचान सा बन गया है। चाहें पी. डब्लू डी में चले जाएं, प्रशासनिक संकुल जाएं, मंत्रालय जाएं या न्यायालय ही चले जाएं। हर जगह आप इस भरष्टाचार को शान से पैर पसारे हुए पाएंगे। सिग्नल पर गलत तरह से गाडी चलाने पर १०० रूपए पुलिसवाले को देकर निकल जाने का अनुभव तो लगभग हम सभी को होगा। हज़ार रूपए र.T.O एजेंट को देकर हममें से कइयों ने मोटर लाइसेंस प्राप्त किये होंगे। खैर यह तो छोटे-मोटे भ्रष्टाचार थे। हमारे महान समाज जो की भेद-भाव और उंच-नीच से ओत-प्रोत है, में एक तबका वी. आई. पी और अमीर भी कहलाता है। भ्रष्टाचार इन अमीरों का परम सेवक है। ये चाहें फूटपाथ पर सोते हुए गरीबों को अपनी महंगी एस. यु. व्ही के पहियों तले रौंद दें, या गलत तरीकों से बेशुमार संपत्ति बटोर लें। पैसे के ज़ोर से यह किसी भी न्यायालय और जेल से "बा-इज़्ज़त" बरी होने का सामर्थ्य रखते हैं। आखिर भ्रष्टाचार स्वयं जो इनकी सेवा में हाज़िर है ! भ्रष्टाचार के कई गाने (चर्चे) आपने पहले भी सुने होंगे टी. वि पर रेडियो पर, अख़बारों में, या फिर गली के नुक्कड़ पर, भ्रष्टाचार आप सभी का देखा परखा हुआ है। इसलिए भ्रष्टाचार राग में, मैं आपको ज़्यादा लम्बा अलाप नहीं सुनाऊंगा। हम इसे थोड़ा करीब से जानने कि कोशिश करेंगे। तो ये भ्रष्टाचार कैसे होता है ? और ये भ्रष्टाचारी आखिर हैं कौन ? ये कैसे हुआ की गांधी और नेहरू द्वारा स्थापित विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र आज एक "भ्रष्टतंत्र" बन कर रह गया है ? ये वो सवाल हैं जिनका जवाब हम दसियों सालों से ढून्ढ रहे हैं। "कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढे बन माहिं ; ऐसे घाटी-घाटी राम हैं, दुनिया दैखे नहिं। या अगर मुहावरे की भाषा में कहें तो : बगल में छोरा, शेहेर में ढिंढोरा। भ्रष्टाचार का मामला कुछ ऐसा ही है। लोगों का दिमाग फिर जाता है, "उनका लालच और ज़रूरतें, ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ जाती हैं ",जब उनकी अंतर-आत्मा सो जाती है, तब भ्रष्टाचार का जन्म होता है। भ्रष्टाचार हम सब मिल कर करते हैं, और हम इतने भ्रष्ट हो चुके हैं कि खुद को बचाकर सारा ठीकरा दूसरे के सर पर फोड़ना चाहते हैं। कभी नेता पर, कभी अभिनेता पर, कभी थानेदार पर तो कभी समाज पर। अपना नाम हम कभी नहीं लेते। और ये लोकतंत्र यह भी एक ही दिन में भ्रष्टतंत्र नहीं बना हम सभी ने इसे यह रूप देने के लिए सतत योगदान दिए हैं। सिग्नल पर पैसे लेना, सूखा रहत कोष के पैसे डकार लेना, किसानों का मुआवज़ा हज़म कर जाना आदि। हम भ्रष्टाचार को इस ही रूप में जानते हैं। हाँ, यही भ्रष्टाचार है, लेकिन नहीं सिर्फ यही भ्रष्टाचार नहीं है. आपको जानकार शायद हैरानी हो, लेकिन हम सभी के सभी भ्रष्टाचार है। कैसे ? हम वजह-बेवजह झूट बोलते हैं, ले-दे के अपना काम जल्दी करवा लेने का महान आइडिया हमारा अपना ही है, हम आलस करते हैं, अपने काम में हम ईमानदार नहीं हैं। विद्यार्थी पढ़ते नहीं हैं, शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते, मैनेजर का काम में मन नहीं लगता, गृहणी को घर का काम बोझ लगता है और तो और हम अपनी संवेदनाएं भी लगभग खो हैं, अपनी संस्कृति, अपनी पहचान, अपने रिवाज़, अपने संस्कार, इन सभी की एक धुंधली सी छवि भर बाकी है जो किसी भी दिन मिट जाएगी। अपने किए का इलज़ाम हम दूसरे के सर मढ़ते हैं, एक तरफ अपनी छवि साफ़ पेश करते हैं, तो पीछे के दरवाज़े से दहेज़ जैसी कुप्रथाओं का समर्थन और पालन पोषण करते हैं। किसान जहरीली "दवाइयों" का उपयोग कर रातों रात फसल ले लेना चाहते हैं। हमारे घरों में पानी है, ज़मीन उपजाऊ है और हवा साँस लेने योग्य है, यह धरती मय्या की ममता है, लेकिन कैसे हम इसका गलत फायदा उठाते हैं। पानी को बेज़ा बहते हैं, ज़मीन और हवा में जहर फैलाते हैं. हम धोका देते हैं, दिलों में रंजिशें रखते हैं। और खुद का दामन पाक साफ़ बताते हैं, और कहते हैं भ्रष्टाचार को जड़ से मिटा देंगे। वाह! नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली। तो हम भ्रष्टाचारी कैसे हो ? हमें भ्रष्टाचारी किसने बनाया? हैरान होने की ज़रूरत नहीं है। भ्रष्टाचार तो हमने बचपन से सीखा है, हमारे ही माता पिता ने सिखाया है। आपको तो याद ही होगा, बचपन में कभी माँ ने कहा होगा फलां आए तो कह देना पापा घर पर नहीं हैं। तो कभी आपने उन्हें किसी की बुराई करते सुना होगा कभी आपस में झगड़ते हुए और न जाने क्या क्या। मै यहाँ ज़िक्र नहीं करना चाहता मेरा मकसद तो केवल आपको इस गंगा की गंगोत्री से अवगत कराना था। तो बताइये? भ्रष्टाचार वगैरह सुनकर आपका बड़ा खून खौलता होगा क्या अब आपका वो खून खौल रहा है? क्या आपको अब भी लगता है की आपको हक़ है की आप भ्रष्टाचार को लेकर बड़ी बड़ी डींगे हांकें? नहीं! आपको कोई हक़ नहीं है. किसी अन्ना हज़ारे, केजरीवाल और मोदी के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है जो घुमाएं और सब साफ़। अपने लेख के माध्यम से मई लोगों से अपील करूँगा के वे झांसों में न आएं और अपनी शक्तियों का शोषण होने से बचाएं। भ्रष्टाचार का एक ही अंत है, खुद को सुधारें। खुद को सुधारेंगे तो दुनिया सुधरेगी। क्योकि ये दुनिया आप ही से है.

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विज्ञानं एक शक्ति है, जो नित नए आविष्कार करती है।  वह शक्ति न ही अच्छी है न ही बुरी वह तो केवल शक्ति है।  अगर हम उस शक्ति से मानव कल्याण के कार्य करें तो वह वरदान प्रतीत होती है अगर उसी से विनाश करना शुरू कर दें तो वह अभिशाप लगती है।
   विज्ञानं ने अंधों को ऑंखें दी हैं और बहरों को सुनने की ताकत।  लाइलाज रोगों की रोकथाम की है और अकाल मृत्यु पर विजय पायी है। विज्ञानं की सहयता से यह युग बटन युग बन गया है।  बटन दबाते ही वायु देवता पंखे को लिए हमारी सेवा करने लगते हैं, इंद्र देवता वर्षा करने लगते हैं, कहीं प्रकाश जगमगाने लगता है तो कही शीत उष्ण हवा के झोंके सुख देने लगते हैं। बस, गाड़ी, वायुयान ने स्थान की दूरी को बांध दिया है।  टेलीफोन द्वारा तो हम सारी वसुधा से बातचीत कर उसे वाकई में कुटुंब बना लेते हैं।  हमने समुद्र की गहराइयाँ भी नाप डाली हैं और आसमान की उचाइयां भी।  हमारे टी.वि. रेडियो, वीडियो में मनोरंजन के सभी साधन कैद हैं।  सचमुच विज्ञानं वरदान ही तो है।
       मनुष्य ने जहाँ विज्ञानं से सुख साधन जुटाए हैं वहीं दुःख के अम्बार भी खड़े कर लिए हैं।  विज्ञानं के द्वारा हमने परमाणु बम जैसे कई खतरनाक हतियार तैयार कर लिए हैं।  वैज्ञानिकों का कहना है की अब दुनिया में इतनी विनाशकारी सामग्री एकत्र हो चुकी है की उससे सारी पृथ्वी  को पंद्रह बार नष्ट किया जा सकता है।  इसके अतिरिक्त प्रदूषण की समस्या बहुत बुरी तरह फ़ैल गयी है।  नित्य नए असाध्य रोग पैदा होते जा रहे हैं जो वैज्ञानिक साधनो का अंधाधुन्द प्रयोग करने का दुष्परिणाम है।
   वैज्ञानिक प्रगति का सबसे बड़ा दुष्परिणाम मानव मन पर हुआ है।  पहले जो मानव निष्कपट था, निस्वार्थ था, भोला था, मस्त और बेपरवाह था अब वह छलि, चालाक, भौतिकवादी, और तनावग्रस्त हो गया है।
उसके जीवन में से संगीत गायब हो गया है, धन की प्यास जाग गयी है।
नैतिक मूल्य नष्ट हो गए हैं।  जीवन में संघर्ष ही संघर्ष रह गए हैं।
               संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित।
               पर झाँक कर देखो दृगों में, हैं सभी प्यासे थकित।।
वास्तव में विज्ञानं को वरदान या अभिशाप बनाने वाला मनुष्य है।
जैसे अग्नि से हम रसोई भी बना सकते हैं और किसी का घर भी जला सकते हैं , चाकू से फलों का स्वाद भी ले सकते हैं और किसी का रक्त भी बहा सकते हैं ; उसी प्रकार विज्ञानं से  हम सुख साधन भी जुटा सकते हैं और मानव का विनाश भी कर सकते हैं।
अतः विज्ञानं को वरदान या अभिशाप बनाना मानव के हाथ में ही है।
इस सन्दर्भ में एक उक्ति याद रखनी चाहिए :
             ' विज्ञानं अच्छा सेवक है, लेकिन बुरा हतियार'

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है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी।
 हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा और लिपि है नागरी।

संसार में मानव भाग्यशाली है जिसे भाषा का वरदान मिला है, जिसके द्वारा वह अपने भावों को व्यक्त कर सकता है।  साहित्य, कला, और विज्ञानं को दर्शाने का आधार है भाषा।  किसी भी राष्ट्र के निवासिओं में राष्ट्रिय एकता की भावना के विकास के लिए एक ऐसी भाषा अवश्य होना चाहिए जिसका व्यवहार राष्ट्रिय स्तर पर किया जा सके।
राष्ट्रभाषा देश का प्रतीक होती है।  मान सम्मान और गौरव होती है।
किसी भी देश में अगर उन्नति प्राप्त करनी है तो राष्ट्र भाषा का सम्मान करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी आज जिस रूप में जानी जाती है वह उसका विकसित रूप है।  उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली आदि. क्षेत्रों में हिंदी का प्रयोग किया जाता है।  यहाँ के निवासिओं की मातृभाषा हिंदी है।  इसलिए इन राज्यों को हिंदी भाषी क्षेत्र कहा जाता है।  इन राज्यों में हिंदी की अनेक बोलियाँ विद्यमान हैं।
पंजाब, गुजरात, तथा महाराष्ट्र राज्यों में हिंदी को द्वितीय भाषा का दर्ज़ा प्राप्त है।
भारत के सभी राज्यों में हिंदी का प्रयोग संपर्क भाषा के रुप में किया जाता है।  सम्पूर्ण भारतवर्ष तथा कुछ देशों इसके अध्ययन की व्यवस्था है।
ज्ञान-विज्ञानं, वाणिज्य, शिक्षा-माध्यम तथा तकनीकी विषयों का अध्ययन भी हिंदी भाषा के माध्यम से हो रहा है।
हिंदी आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलन में है।  नेपाल, सूरीनाम, कैनाडा, इंग्लैंड ityadi